गुमनाम सितारे: पप्पू कार्की जैसे महान लोकगायक के साथी रहे हरीश भंडारी पर कब पड़ेगी सिस्टम की नजर?

खबर शेयर करें -

संजय पाठक, प्रेस 15 न्यूज, हल्द्वानी। देवभूमि उत्तराखंड में ऐसे तमाम लोक कलाकार हैं जो गुमनामी के अंधेरे में जीने को मजबूर हैं। राज्य गठन के 23 साल बाद भी लोक संस्कृति के पुरोधाओं की ये हालत सरकारी सिस्टम के स्याह चेहरे को बयां करने के लिए काफी है।

आज हम आपको उत्तराखंड के एक ऐसे ही प्रतिभावान लोक कलाकार से रूबरू कराने जा रहे हैं जो सालों से लोक संस्कृति की जड़ों को सींचने में दिन रात एक किए हुए हैं बावजूद इसके कलाकार का सम्मान करना तो दूर संज्ञान लेना भी सरकारी सिस्टम ने जरूरी नहीं समझा।

लोक कलाकार की कहानी उन्हीं की जुबानी VIDEO 

यही वजह है कि रोजी रोटी और परिवार को पालने के लिए मूल रूप से चंपावत जिले के मछियाड़ गांव निवासी वरिष्ठ लोक कलाकार हरीश भंडारी को गांव से दूर हल्द्वानी में फूड स्टॉल लगाने को मजबूर होना पड़ा है।

सिस्टम के सितम से परेशान हो चुके लोक कलाकार हरीश भंडारी कहते हैं कि उन्हें लोककला की ये धरोहर स्वर्गीय पिता बद्री सिंह भंडारी जी से मिली। पिताजी लोक संस्कृति के ध्वजवाहक से कम नहीं थे। झोड़ा, चांचरी, बैर, भगनोल जैसी विधाओं में उन्हें पारंगत हासिल थी। यही वजह है कि पिता के संस्कारों के चलते कब उनके भीतर लोक संस्कृति का यह बीज रोपित हो गया, उन्हें भी पता नहीं चला।

लोक कलाकार हरीश भंडारी बताते हैं कि बचपन से ही पिता के मार्गदर्शन में झोड़ा, चांचरी, बैर, भगनोल का ज्ञान मिला। फिर वर्षों तक क्षेत्र की रामलीला में लक्ष्मण, रावण, मेघनाद जैसे किरदार निभाए।

हरीश भंडारी कहते हैं कि उन्हें उत्तराखंड के महान लोकगायक पप्पू कार्की के साथ काम करने का सौभाग्य मिला। आज भी गौनियारो गांव के उस हादसे को याद कर उनकी आंखें नम हो जाती हैं जब पप्पू कार्की दुनिया से अलविदा कह गए।

इसके बाद उन्हें युवा लोक कलाकार दीपक सुयाल का साथ मिला और दीपक कुमार सुयाल लोककला सांस्कृतिक समिति से जुड़कर विभिन्न मेलों में मंच साझा किया। लेकिन आज दिन तक सरकारी विभागों की नजरें उनकी प्रतिभा पर नहीं पड़ी। यही वजह है कि घर चलाने और बच्चों को काबिल बनाने के लिए हल्द्वानी में फूड स्टॉल लगाने को मजबूर हुए।

लोक कलाकार हरीश भंडारी कहते हैं कि आज उत्तराखंड में ऐसे तमाम कलाकार हैं जो गरीबी का दंश झेल रहे हैं। इस कारण लोक कला के प्रति उनका जुनून भी खत्म हो रहा है। आज केवल और केवल वही कलाकार आगे बढ़ पा रहा है कि जो खुद में सक्षम है या फिर जो सेटिंग में माहिर है। ऐसे में गरीब प्रतिभावान कलाकार गुमनामी के अंधेरे में खोने को मजबूर हैं।

एक साल से नहीं मिला मुआवजा

आप यह जानकर हैरान रह जाएंगे कि लोक कलाकार हरीश भंडारी के पैतृक गांव मछियाड़ में उनकी दुधारू गाय साल भर पहले गुलदार के हमले में मर गई। आज दिन तक हरीश भंडारी एक अदद मुआवजे के लिए फाइल को तहसील से लेकर जिले और मंडल के अधिकारियों के दफ्तर में ले जाने को भटक रहे हैं।

हरीश भंडारी कहते हैं कि एक तकलीफ हो तो बताऊं उन्हें सरकारी सिस्टम से कई बार निराशा हाथ लगी है लेकिन लोक कला उनकी आत्मा में बसती है। जब तक जान है तब तक देवभूमि की लोक संस्कृति और कला को समर्पित रहूंगा।

What’s your Reaction?
+1
0
+1
1
+1
0
+1
0
+1
0

संजय पाठक

संपादक - प्रेस 15 न्यूज | अन्याय के विरुद्ध, सच के संग हूं... हां मैं एक पत्रकार हूं