हल्द्वानी, प्रेस 15 न्यूज। देवभूमि उत्तराखंड की बात ही निराली है। प्रकृति और परमेश्वर का अनूठा संगम यहां पल पल देखने को मिल जाता है। बच्चों से जुड़ा और प्रकृति को समर्पित लोक पर्व फूलदेई हर उत्तराखंडी की आत्मा में बसता है। इसी के साथ ही आज से भिटोली का महीना भी शुरू हो गया है।
उत्तराखंड की लोक संस्कृति में प्रकृति को आभार प्रकट करने वाला लोकपर्व है ‘फूलदेई’…चैत्र माह की संक्रांति को, जब ऊंची पहाड़ियों से बर्फ पिघल जाती है, सर्दियों के मुश्किल दिन बीत जाते हैं, उत्तराखंड के पहाड़ बुरांश के लाल फूलों की चादर ओढ़ने लगते हैं, तब पूरे इलाके की खुशहाली के लिए फूलदेई का पर्व मनाया जाता है।
सर्दी और गर्मी के बीच का खूबसूरत मौसम, फ्यूंली, बुरांश और बासिंग के पीले, लाल, सफेद फूल और बच्चों के खिले हुए चेहरे… ‘फूलदेई’ के पर्व की विशेषता है। नए साल का, नई ऋतुओं का, नए फूलों के आने का संदेश लाने वाला ये पर्व उत्तराखंड के गांवों और कस्बों में मनाया जाता है।
यह लोकपर्व मुख्य रूप से छोटे बच्चों से जुड़ा है। वक्त के साथ तरीके बदले, लेकिन हम सभी को प्रयास करना चाहिए कि अपनी संस्कृति को जिंदा रखें व बढ़ावा दें व लोगों को जागरूक भी करें।
फूलदेई के दिन बच्चे सुबह-सुबह उठकर फ्यूंली, बुरांश, बासिंग और कचनार जैसे जंगली फूल इकट्ठा करते हैं। इन फूलों को थाली या टोकरी में सजाया जाता है। टोकरी में फूलों-पत्तों के साथ गुड़, चावल, पैसे और नारियल रखकर बच्चे अपने गांव और मुहल्ले की ओर निकल जाते हैं। फूल और चावलों को गांव के घर की देहरी, यानी मुख्यद्वार पर डालकर बच्चे उस घर की खुशहाली की कामना करते हैं। इस दौरान एक गीत भी गाया जाता है- फूलदेई, छम्मा देई….दैणी द्वार, भरे भकार…. यो देई पूजूं बारम्बार
फूलदेई से जुड़ी ये भी है एक कहानी
ज्योतिषाचार्य डॉ मंजू जोशी बताती हैं कि एक बार भगवान शिव अपनी शीतकालीन तपस्या में लीन हुए तो कई बर्ष बीत गए और ऋतुएं परिवर्तित होती रही लेकिन भगवान शिव जी की तंद्रा नहीं टूटी जिस कारण माँ पार्वती और नंदी आदि शिव गण कैलाश में नीरसता का अनुभव करने लगे, तब माता पार्वती जी ने भोलेनाथ जी की तंद्रा तोड़ने की एक अनोखी तरकीब निकाली।
जैसे ही कैलाश में फ्योली के पीले फूल खिलने लगे माता पार्वती ने सभी शिव गणों को प्योली के फूलों से निर्मित पीताम्बरी जामा पहनाकर सबको छोटे-छोटे बच्चों का स्वरुप दिया और फिर सभी शिव गणों से कहा कि वे लोग देवताओं की पुष्पवाटिकाओं से ऐसे सुगंधित पुष्प चुन लायें जिनकी खुशबू पूरे कैलाश में फैल जाए। माता पार्वती की आज्ञा का पालन करते हुए सबने वैसा ही किया और सबसे पहले पुष्प भगवान शिव के तंद्रालीन स्वरूप को अर्पित किये जिसे “फूलदेई” कहा गया।
साथ में सभी शिव गण एक सुर में गाने लगे “फूलदेई क्षमा देई” ताकि महादेव जी तपस्या में बाधा डालने के लिए उन्हें क्षमा कर दें। बालस्वरूप शिवगणों के समूह स्वर की तीव्रता से भगवान शिव की तंद्रा टूट पड़ी परन्तु बच्चों को देखकर उन्हें क्रोध नहीं आया और वे भी प्रसन्न होकर फूलों की क्रीड़ा में शामिल हो गए और कैलाश में उल्लास का वातावरण छा गया।
मान्यता है कि उस दिन मीन संक्रांति का दिन था तभी से उत्तराखंड के पर्वतीय अंचल में “फूलदेई” को लोक-पर्व के रूप में हर्षोल्लास के साथ मनाया जाने लगा, जिसे बच्चों का त्यौहार भी कहा जाता है।