कुमाऊं में होली के रंग, जमती है बैठकी और खड़ी होली की गजब की महफिल, जानें होली का इतिहास

खबर शेयर करें -

हल्द्वानी, प्रेस15 न्यूज। देवभूमि उत्तराखंड की अनूठी लोक संस्कृति, गीत संगीत, वाद्य यंत्र और पर्व त्योहारों की बात ही कुछ ओर है। बात अगर कुमाऊं में होली गायन की करें तो समृद्ध परंपरा समेटे हुए रंगों का यह त्योहार यहां के लोकजीवन में विशेष स्थान रखता है। पौष माह के पहले रविवार से कुमाऊं में विष्णुपदी होली गायन शुरू हो जाता है। राग और तालों के आधार पर गाई जाने वाली इस होली में कई रंग देखने को मिलते हैं जिनमें भक्ति रस, आध्यात्म व ईश्वर की आराधना की जाती है। पौष के पहले रविवार से होली के टीके तक चार चरणों में होली गायन होता है। विभिन्न रागों से सजी बैठकी होली की इस परंपरा में अनगिनत गीत हैं जिन्हें पीढ़ी दर पीढ़ी गाया जा रहा है।

हल्द्वानी में बैठकी होली गायन करतीं महिलाएं। (फाइल फोटो)

पौष की ठिठुरन भर देनी वाली रात में बैठकी होली की महफिल जोश भर देती है। ऐसी रौनक होती है कि ठंड का अहसास तक नहीं होता। होली को आमतौर पर होलिका व प्रहलाद के प्रसंग से जोड़कर देखा जाता है, लेकिन असल में यह हर्ष, उल्लास व ऋतु परिवर्तन का पर्व है। इसमें होलिका दहन तो होता ही है साथ ही गीत-संगीत, हंसी मजाक, मेलजोल, रंग खेलने का अपना महत्व है। होली के त्योहार की अपनी आंचलिकता भी है जो होली के गीतों में साफ तौर पर देखने को मिलता है।

कुछ इस तरह कुमाऊं में जमती है खड़ी होली की महफिल। (फाइल फोटो)

माना जाता है कि कुमाऊं में 10वीं व 11वीं सदी से होली गायन का शुभारंभ हुआ। गढ़वाल के टिहरी व श्रीनगर में कुमाऊं के लोगों की बसासत और राजदरबार के होने से होली का वर्णन कवि मौलाराम की कविताओं में भी मिलता है। ब्रज के होली गीतों के नृत्य व गायन स्वरूप का कुमाऊं की होली पर बड़ा प्रभाव रहा है। दरअसल, 10वीं व 11वीं सदी के मध्य मैदानी क्षेत्रों से भिन्न-भिन्न जन समुदायों का आगमन कुमाऊं में हुआ, जो अपने साथ विरासत में अपनी संस्कृति भी लाए। कहा जाता है कि 16वीं सदी में कुमाऊं में होली गायन की परंपरा का शुभारंभ राजा कल्याण चंद के समय हुआ। कुमाऊं में प्रचलित होली गीतों की शैली तो पर्वतीय हो गई, लेकिन भाषा में कुमाऊंनी, गढ़वाली या अन्य स्थानीय बोली के शब्द बहुत कम हैं। अधिकांश होली गीत ब्रज, भोजपुरी, अवधी हैं।

जानकार बताते हैं कि सालों पहले उत्तराखंड में रास मंडलियां के आने का दौर भी रहा है। दरभंगा, कन्नौज समेत कई अन्य राज्यों से से लोग यहां आते थे। कैलास मानसरोवर का यात्रा पथ भी उत्तराखंड से होते हुए गुजरता था, ऐसे में बाहरी राज्यों से बड़ी संख्या में लोगों का यहां आना शुरू से रहा। कुमाऊं और दरभंगा की होली में अनोखा सामंजस्य है। कन्नौज व रामपुर की गायकी का प्रभावन भी इसमें पड़ा। अनामत अली उस्ताद ने होली गायकी को ठुमरी के रूप में सोलह मात्राओं में पिरोया। उस्तादों व पेशेवर गायकों का योगदान इसमें रहा है। इस बीच स्थानीय लोगों के साथ संगीत का आदान-प्रदान भी होता रहा। कुमाऊं क्षेत्र में गाई जाने वाली होलियों में बृज और खड़ी बोली का स्पष्ट प्रभाव देखा जाता है। कुमाऊंनी में गायी जाने वाली होलियों के साथ बृजभाषा और खड़ीबोली की होलियों ने कुमाऊं क्षेत्र में होली की एक समृद्ध परम्परा बनाई। कहते हैं ग्वालियर, मथुरा से भी मुस्लिम संगीतज्ञ यहां आते रहे। 1850 से होली की बैठकें नियमित होने लगीं तथा 1870 से वार्षिक समारोह के रूप में मनाया जाने लगा।

नैनीताल में मां नयना देवी मंदिर के प्रांगण में खड़ी होली गायन करते कलाकार। (फाइल फोटो)

कुमाऊं में होली गीत गायन के दो प्रकार हैं- खड़ी होली और बैठकी होली। खड़ी होली ग्रामीण अंचल की ठेठ सामुहिक अभिव्यक्ति है जबकि बैठकी होली को नागर होली भी कहा जाता है। बैठकी होली शास्त्रीय संगीत की बैठकों की तरह होते हुए भी लोकमानस से इस प्रकार जुड़ी है कि उस महफिल में बैठा हुआ प्रत्येक व्यक्ति उसमें अपने को कलाकार और गायक मानता है।

संस्कृतिकर्मी बताते हैं कि बरसों पहले अल्मोड़ा में बृज की टोलियां रासलीला करने आया करती थीं। इन टोलियों में मुस्लिम कलाकार भी शामिल होते थे। 1870-80 के दशक में उस्ताद अमानत हुसैन अल्मोड़ा के प्रमुख शास्त्रीय होली गायकों में से एक थे। उस्ताद अमानत हुसैन रामनगर के रहने वाले थे जो बाद में अल्मोड़ा में ही बस गए। कुमाऊं में गाई जाने वाली बैठकी होली में प्रयुक्त होने वाली चाचर ताल की शुरुआत उस्ताद अमानत हुसैन ने ही की थी। इसी कारण उस्ताद अमानत हुसैन को शास्त्रीय कुमाऊंनी होली का जनक माना जाता है।

बात अगर होली की महफिल में रंग जमाने वाले कलाकारों की करें तो उनमें मोहन लाल साह, शिवलाल वर्मा, गांगी थोक और मल्ली बाजार अखाड़ा हनुमान मंदिर के महंत लंबे समय तक अल्मोड़ा में होली की शान रहे। यही वजह है कि मल्ली बाजार अखाड़ा हनुमान मंदिर के महंत को उत्तराखंड का भातखंडे के रूप में जाना है। अल्मोड़ा में हुक्का क्लब और खताड़ी मोहल्ले के संस्कृतिकर्मी पौष के पहले रविवार से लेकर छलड़ी तक एक साथ बैठकर बैठकी होली का आयोजन करते हैं।

हल्द्वानी के मुखानी क्षेत्र में होली के रंग में रंगे युवा। (फाइल फोटो)
What’s your Reaction?
+1
0
+1
0
+1
0
+1
0
+1
0

संजय पाठक

संपादक - प्रेस 15 न्यूज | अन्याय के विरुद्ध, सच के संग हूं... हां मैं एक पत्रकार हूं