हल्द्वानी, प्रेस 15 न्यूज। सवाल: कलयुग की पराकाष्ठा के इस दौर में आप कौन हैं साहेब और 72 बलिदानियों के त्याग से सीचीं और देश के नक्शे में आए इस देवभूमि उत्तराखंड से आपका क्या ताल्लुक है, कृपया हमें विस्तार से बताइए ताकि उत्तराखंड के पहाड़ी जिलों के भोले भाले मानुष से लेकर तराई के शेरों के ज्ञान चक्षु कलयुग समाप्ति से पहले खुल सकें?
जवाब: सुनो ध्यान से सुनो ऐ आम उत्तराखंडी, मैं उत्तराखंड का माननीय हूं। हां, वही उत्तराखंड जिसके 13 जिले हैं। जिसकी 70 विधानसभाओं में से एक विधानसभा का मैं माननीय हूं। अब यह मत पूछना कि मैं किस विधानसभा का माननीय हूं और मैं माननीय कैसे बना क्योंकि ये पर्सनल मैटर है।
कोई अपने दम पर यानी अपने सामाजिक कार्यों की बदौलत माननीय बना हो ऐसा मुझे तो पता नहीं क्योंकि अधिकतर तो अपने बाप, दादा, मां, चाचा के दम पर ही माननीय बने हैं। और जिनके पास ये सब रिश्ते वाला एडवांटेज नहीं होता वो भाजपा, कांग्रेस, सपा, बसपा जैसे झंडों के सहारे माननीय बन ही जाते हैं।
सुनो ऐ आम उत्तराखंडी, मैने अपनी करोड़ों की एसयूवी गाड़ी के शीशे में भी बड़े बड़े अक्षरों में विधायक लिखवाया है ताकि दूर से गुजर रहा तुम जैसा आम उत्तराखंडी अपना शोषित दिमाग और टोल की पर्ची काट रहा कर्मचारी बिना अक्ल लगाए फाटक तुरंत खोल सके। मेरा टशन देखना हो तो कभी कुछ देर मेरे साथ रहना।
जिस डीएम एसएसपी को देखकर तुम खड़े हो जाते हो ना और सर सर मैडम मैडम कहते कहते नही रुकते, उन्हें तो मैं एक फोन में सीधा कर देता हूं। और जो अफसर जरा सा भी तेवर दिखाता है तो फौरन विशेषाधिकार हनन का दांव खेलकर विधानसभा में क्लास भी लगवा देता हूं। अब इतने भर से माननीय का रौब और रुतबा समझ गए हो या और समझाऊं…
सवाल: बस साहेब एक आखिरी बात और बता दीजिए कि 24 साल के उत्तराखंड में आपका योगदान क्या रहा?
जवाब: अबे, तुम कम दिमाग के हो क्या! माननीय का योगदान पूछते हो? क्या उत्तराखंड में योगदान देने के लिए हम माननीय बने हैं। क्या करोड़ों रुपए का टिकट हमने उत्तराखंड में योगदान देने के लिए खरीदा है। इस पर चुनाव प्रचार का खर्चा और तुम जैसों को शराब और दूसरे गिफ्ट देना सो अलग।
काहे को यार फिजूल का सवाल पूछते हो। सच बताएं हमें सिर्फ और सिर्फ अपने कारोबार, अपनी दौलत जायदाद को बढ़ाने और अपने काले कारनामों को सफेद करने की चिंता रहती है। जो उत्तराखंड की चिंता रहती तो क्या आज उत्तराखंड के ये हाल होते?
जो गांव 9 नवंबर 2000 से पहले समृद्ध और खुशियों से भरे थे, आज खोखले और भूतिया हो गए, ये है हमारा योगदान… जो जमीन फलों के बागों और फसलों से लहलहाती थी, हमने उसके चारों ओर बंदर, सुअर, गुलदार, सांड, बैल छोड़ दिए ताकि पहाड़ी किसान अपनी मेहनत को भूल अपनी किस्मत को कोसने लगे। और इस कदर परेशान हो जाए कि औने पौने दाम में अपनी पितरों की पाली पोसी थात को दिल्ली, हरियाणा, राजस्थान, मुंबई और ना जाने किन किन को बेचने को विवश हो जाएं।
जिस गांव में कभी प्राकृतिक जल के स्त्रोत बहते थे, वहां हमने सड़क बनाने के नाम पर डायनामाइट से ऐसे विस्फोट किए कि जल स्त्रोत ही ही गायब हो गए। यानी जब पानी ही नहीं होगा तो क्या खाक वहां लोग खेती किसानी कर सकेगें। रही सही कसर मंडी में बैठे हमारे पाले अधिकतर दलालों ने पूरी कर दी। कुल मिलाकर हमने इन 24 सालों में उत्तराखंड मूल के लोगों के लिए सम्पन्नता के बजाय पलायन का रास्ता खोलने में योगदान दिया है।
ये हम माननीयों का ही कमाल है कि 24 साल तक उत्तराखंड के लोगों को बिजली, पानी, सड़क, रोजगार, अस्पताल में ही उलझाए रखा। इतना ही नहीं हमने आज तक राज्य के लोगों को स्थायी राजधानी तक नहीं दी। कभी देहरादून तो कभी गैरसैंण में उलझाए रखा।
इसी तरह साल दर साल बीतते जाएंगे और हम यूं ही माननीय बनकर अपनी सात पीढ़ियों के लिए राज छोड़ जाएंगे। अब तुम ही बताओ जो अगर हम माननीय अपने अपने क्षेत्रों में विकास की गंगा बहा देते तो क्या आज उत्तराखंड के ऐसे हाल होते ?
जंगल जल रहे हैं लेकिन हम खामोश हैं। हम में से जो कोई जंगलों की आग बुझाने के लिए बोल भी रहे हैं तो सिर्फ और सिर्फ मीडिया में सुर्खियां बटोरने। जंगल जलें हमारी बला से, हम एसी गाड़ी में चलने और आलीशान अय्याशी वाले घरों में रहने वालों को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता।
राज्य में बहन बेटियों को मारकर ठिकाने लगाने में भी हमारा नाम आता है। हर अवैध कारोबार को हम करते हैं जो हिम्मत हो पुलिस प्रशासन की तो हमारा बाल भी बांका करके दिखाए।
ये जो तुम अक्सर सुनते हो ना कि पुलिस ने स्मैक के साथ या शराब के साथ फलां फलां को पकड़ लिया या पहाड़ के उस गांव शहर में जिस्मफरोशी का धंधा पकड़ा गया, इनमें भी अधिकतर हमारे ही लोग होते हैं। एक लाइन में समझ लो कि हम अपने माननीय पद की आड़ में हर वो काम करते हैं जो आम आदमी सोच भी नहीं सकता। हम हैं माननीय, उत्तराखंड में हमारा यही योगदान है।
सवाल: एक आखरी सवाल नेता जी, ये बता दीजिए कि अभी कुछ दिन पहले ही मंडी समिति देहरादून के पूर्व अध्यक्ष रविंद्र सिंह आनंद ने आरटीआई लगाकर उन विधायकों के नामों का खुलासा किया है, जो गैरसैंण में बजट सत्र नहीं होने देना चाहते थे। वो कौन कौन से विधायक थे जो राज्य के पहाड़ी मूल के लोगों की आत्मा गैरसैंण में करोड़ों रुपए फूंक कर बने विधानसभा भवन में जाने से बच रहे थे?
जवाब: देखो भाई, पहले मैं ये साफ कर दूं जिन 24 विधायकों के नाम आरटीआई में सामने आए हैं उनमें मेरा नाम नहीं है। मेरा मानना है वो विधायक ही क्या जिसका नाम आरटीआई में आ जाए। दूसरी बात, यार एक बात बताओ देहरादून का ऐशोआराम छोड़कर कौन पागल गैरसैंण जाएगा।
तुम ही बताओ यार, देहरादून की अय्याशी के सामने गैरसैंण कहीं टिकता है? देहरादून में हर जगह नूर ही नूर और गैरसैंण में हर जगह बंदर लंगूर… ऐसे में बजट सत्र में वहां कैसे मन लगता। ऊपर से गैरसैंण की ठंड। टाइम पास भी तो मनपसंद जगह पर ही होता है न। वो बात अलग है कि पहाड़ियों को शांत करने के लिए हमने जनता के ही करोड़ों रुपए फूंककर वहां विधानसभा भवन बना दिया है लेकिन वो सब दिखाने भर के लिए था। इस बात को उत्तराखंड के लोगों को समय रहते समझ जाना चाहिए।
यार, तुम खुद सोचो जो अगर हमें पहाड़ का विकास ही करना होता तो क्या हम देहरादून में बैठकर नहीं कर सकते थे। जब मंशा हो तो कुछ भी नामुमकिन नहीं होता। ये तो पहाड़ में कुछ सच्चे और इरादे के पक्के पहाड़ियों को शांत करने के लिए हमने गैरसैंण में विधानसभा भवन बना दिया वरना जनांदोलन का खतरा था। सौ बात की एक बात बताऊं हमें पहाड़ में पहाड़ के लोगों के मनमुताबिक विकास करना ही नहीं है।
एक अंदर की बात और जान लो, इन 24 नामों के अलावा भी 14 और नाम हैं जिनमें विधायकों के अलावा मंत्रियों के साथ स्वयं मुख्यमंत्री का नाम शामिल होने की भी बात सामने आ रही है। खैर, छोड़ो ये सब अंदर की बातें हैं इन्हें अंदर ही रहने दो।
हां, रही बात रविंद्र सिंह आनंद की तो पता चला है कि उस भाई ने 26 फरवरी को देहरादून विधानसभा के बाहर प्रदर्शन कर गैरसैण में बजट सत्र आयोजित ना होने का कारण पूछा था। कोई जवाब ना मिलने के बाद आनंद ने अपनी पहली आरटीआई विधानसभा कार्यालय में दाखिल की।
पहली आरटीआई का आनंद को कोई भी जवाब नहीं मिला। मिलता भी कैसे सामने विधायकों की ताकत जो थी। इसके बाद आनंद ने मुख्यमंत्री कार्यालय सचिवालय में आरटीआई लगाकर विधायकों का नाम सार्वजनिक करने के लिए पत्र भेज दिया।
दूसरी आरटीआई के जवाब में मुख्यमंत्री कार्यालय सचिवालय को जिद्दी और विधायकों के लिए सिरदर्द बने रविंद्र सिंह आनंद को जानकारी देने पर मजबूर होना पड़ा। वैसे भी नाम उजागर होने से विधायकों की सेहत में रत्ती भर भी फर्क नहीं पड़ेगा। क्योंकि उन्हें पता है ये उत्तराखंड की जनता है जो याददाश्त की कच्ची है। 2027 विधानसभा चुनाव आते आते सब भूल जाएगी। वैसे भी उत्तराखंड में कब किसने उम्मीदवार को देखकर वोट दिया है। यहां तो पार्टी का झंडा और नाम लहर ही विधायक और सांसद बनने का आधार और योग्यता है।
अब इतना सब मुझ दबंग विधायक से बुलवा ही चुके हो तो यह भी जान ही लो। गैरसैंण में बजट सत्र 2024 नहीं कराए जाने को लेकर संयुक्त पत्र पर हस्ताक्षर करने वाले विधायकों में भीमताल से भाजपा विधायक राम सिंह कैड़ा, हल्द्वानी के कांग्रेस विधायक सुमित हृदयेश, लालकुआं से भाजपा विधायक डॉ. मोहन सिंह बिष्ट, रामनगर से भाजपा विधायक दीवान सिंह बिष्ट, रानीखेत विधानसभा से भाजपा विधायक प्रमोद नैनवाल, गदरपुर से भाजपा विधायक अरविंद पांडे , किच्छा से कांग्रेस विधायक तिलकराज बेहड़, नानकमत्ता से भाजपा विधायक गोपाल सिंह राणा, डीडीहाट से भाजपा विधानसभा बिशन सिंह चुफाल ,रुद्रपुर से भाजपा विधायक शिव अरोड़ा, रायपुर विधायक उमेश शर्मा काऊ, गंगोलीहाट के विधायक फकीर राम, राजपुर विधायक खजान दास, रानीपुर विधायक आदेश चौहान, पुरोला विधायक दुर्गेश लाल , सहसपुर विधायक सहदेव सिंह पुंडीर , थराली विधायक भूपाल राम टम्टा, रुड़की विधायक प्रदीप बत्रा , कैंट विधायक सविता कपूर, लैंसडाउन विधायक दिलीप रावत, काशीपुर विधायक त्रिलोक सिंह चीमा, डोईवाला विधायक बृजभूषण गैरोला, पौड़ी विधायक राजकुमार और खानपुर से निर्दलीय विधायक उमेश कुमार शामिल हैं।
इतना कहते ही माननीय के मोबाइल में घंटी बजती है और गर्दन हिलाकर वो अपने चमचों के झुंड से निकलकर दूर जाकर कुछ फुसफुसाने लगते हैं।
नोट: एक आम उत्तराखंडी और नेताजी के बीच हुए इस सवाल जवाब में कही गई बातों का देवभूमि उत्तराखंड के विधायकों/सांसदों से कोई लेना देना नहीं है। अगर कहीं समानता मिलती भी है तो इसे मात्र संयोग समझा जाए। इस बातचीत में जहां जहां भी उत्तराखंड का जिक्र है उसे अजूबा प्रदेश और जहां जहां माननीय/ विधायक/सांसद शब्द का जिक्र हुआ है उसे कलयुग का अवतार पढ़ा जाए।