हल्द्वानी, प्रेस 15 न्यूज। यूसीसी यानी समान नागरिक संहिता को राजभवन से मंजूरी मिल चुकी है, लेकिन राज्य आंदोलनकारियों और उनके आश्रितों को राजकीय सेवा में आरक्षण देने वाला विधेयक राजभवन में चार महीने से लंबित पड़ा हुआ है। पिछले कई दिनों से राज्यपाल नैनीताल प्रवास में हैं।
ऐसे में राज्य आंदोलनकारियों और उनके आश्रितों की लंबे इंतजार के बाद भी नौकरी में आरक्षण की मुराद पूरी नहीं हो पाई रही है, ऐसे में सुस्त सिस्टम को लेकर राज्य आंदोलनकारियों में आक्रोश है।
प्रमुख राज्य आंदोलनकारी ललित जोशी बताते हैं कि साल 2004 में एनडी तिवारी सरकार में राज्य आंदोलनकारियों को नौकरी में 10 प्रतिशत क्षैतिज आरक्षण का शासनादेश हुआ।
तब दो शासनादेश जारी हुए थे। पहला समूह ग और घ के लिए जिसमें बिना परीक्षा के सीधे नियुक्ति थी। इसके लिए शर्त थी कम से कम सात दिन जेल में रहे हों या घायल हुए हों।
दूसरा सात दिन से कम की जेल या घायल, इनके लिए राज्याधीन सेवाओं में 10 प्रतिशत क्षैतिज आरक्षण की व्यवस्था की गई थी। इस शासनादेश के बाद करीब 1,700 लोगों को आंदोलनकारी कोटे से नौकरी का लाभ भी मिला।
साल 2016 में हरीश रावत सरकार में आरक्षण को कानूनी रूप देने के लिए मंत्रिमंडल ने विधेयक पास कर राजभवन भेजा गया। पांच साल से भी अधिक समय तक विधेयक राजभवन में लंबित रहा। 2018 में हाईकोर्ट ने इस शासनादेश को रद्द कर दिया था।
वहीं, साल 2021 में मुख्यमंत्री धामी ने अपने पहले कार्यकाल में कैबिनेट से प्रस्ताव पास कर राजभवन को आरक्षण के मुद्दे से अवगत कराया। 2023 में राजभवन से विधेयक कुछ आपत्ति के साथ वापस भेजा गया।
इस साल धामी सरकार की ओर से विधेयक को कुछ संशोधनों के साथ फिर से राजभवन भेजा गया। जिसे आज दिन तक राज्यपाल महोदय की नजरें इनायत का इंतजार है।
बताते चलें कि उत्तराखंड में चिह्नित राज्य आंदोलनकारियों की संख्या लगभग 13 हजार है। विधेयक को समय से राजभवन से मंजूरी मिलती तो आरक्षण का लाभ इन हजारों राज्य आंदोलनकारियों और उनके आश्रितों को मिलता।
उत्तराखंड राज्य निर्माण में 42 शहादतें हुईं। छोटे छोटे बच्चे सड़कों पर तख्तियां उठाकर आए। मातृशक्ति की अस्मिता तार तार हुई। खटीमा, मसूरी, मुजफ्फरनगर कांड सामने आए लेकिन राज्य के जुनूनी लोगों ने अपना हक लेकर ही दम लिया। अफसोस कि राज्य बनने के 24 साल बाद भी राज्य निर्माण में अहम योगदान देने वाले हाशिए पर हैं।