अल्मोड़ा, प्रेस 15 न्यूज। कुर्सी है तुम्हारा ये जनाजा तो नही है, कुछ कर नहीं सकते तो उतर क्यों नहीं जाते…पिछले कुछ दिनों से उत्तराखंड की बेशर्म सियासत और एसी दफ्तरों में बैठकर जंगल की बुझाने वाली नौकरशाही से उत्तराखंड का हर मूल निवासी यही सवाल पूछ रहा है। आज तो सोमेश्वर की 75 साल की एक बूढ़ी बेबस मां ने भी मानो यही सवाल पूछा है।
हद हो गई, देश की सबसे बड़ी अदालत सुप्रीम कोर्ट की फटकार के बाद भी न तो सरकार चेती और न हीं वन विभाग के अधिकारियों की कार्यशैली… नतीजा यह रहा कि अल्मोड़ा के सोमेश्वर क्षेत्र के खाईकट्टा गांव में जंगल की आग में झुलझकर 40 साल के युवक महेंद्र सिंह की मौत हो गई।
जानकारी के मुताबिक, बीते बृहस्पतिवार खाईकट्टा के पास जंगल में आग लग गई। गांव के ही लोग देर रात और शुक्रवार तड़के तक आग बुझाने में जुटे रहे।
इसी बीच गांव का युवक महेंद्र सिंह आग की चपेट में आ गया। उसका आधा शरीर जलकर खाक हो गया। सूचना के बाद दूसरे दिन वन विभाग की टीम मौके पर पहुंची।
जानकारी के मुताबिक, युवक महेंद्र सिंह जब महज छह महीने का था, उसके पिता की मौत हो गई। मां ने किसी तरह संघर्षों से इकलौते बेटे को पाला और उम्र के अंतिम पड़ाव में वह उसी के सहारे जी भी रही थी।
अब घर में 75 साल की बूढ़ी मां राधा देवी के अलावा महेंद्र की पत्नी पुष्पा और 18, 14, 11 साल की तीन बेटियां बची हैं। महेंद्र मजदूरी कर पूरे परिवार की जरूरतों को पूरी कर रहा था। लेकिन जंगल की आग या यूं कहें निर्लज्ज सरकारी तंत्र ने हंसते खेलते परिवार की खुशियां एक पल में छीन लीं। पूरे परिवार का रो रो कर बुरा हाल है। बूढ़ी मां तो बेसुध सी हो गई है। मां और बेटियों की आंखें आंसुओं में डूबी हैं।
बात अगर अल्मोड़ा रेंज की ही करें तो सरकारी आंकड़ों के अनुसार, इस फायर सीजन में जिले में 149 घटनाओं में 275 हेक्टेयर से अधिक जंगल जलकर खाक हो गया। बीते 10 साल में जंगल की आग की चपेट में आने से किसी की मौत नहीं हुई। इस बार फायर सीजन में अब तक दो महिलाओं सहित पांच लोगों को जान गंवानी पड़ी है।
बीते दिनों सोमेश्वर क्षेत्र में लीसा दोहन में लगे दो महिला, दो पुरुष सहित चार श्रमिकों की जंगल की आग की चपेट में आने से मौत हो चुकी है। बावजूद इसके न तो सरकार और न हीं वन विभाग के देहरादून और जिलों में बैठे अधिकारियों ने सुध ली। अब कार्रवाई के नाम पर वन विभाग के अधिकारी अज्ञात के खिलाफ जंगल में आग लगाने के लिए मुकदमा लिखाने की बात कह रहे हैं।
सवाल अब भी यही है कि जिन परिवारों ने जंगल की आग में अपनों को खोया है, क्या वन विभाग और सरकार उनकी जिंदगी वापस ला सकती है?
जंगल बचाने के नाम पर वन विभाग के मोटी मोटी तनख्वाह लेने वाले अधिकारी और पिरूल खरीदने का सुर्रा छोड़ने वाली सरकार क्या मृतकों के परिवार में वापस खुशियां ला सकती है? अगर नहीं तो उन्हें उसी चुल्लू भर पानी में डूब जाना चाहिए, जिस चुल्लू भर पानी से वो जंगल की आग बुझाने की नौटंकी करते हैं।