संजय पाठक, प्रेस 15 न्यूज, हल्द्वानी। यूं तो उत्तराखंड के पहाड़ी जिलों और उनमें बसे खूबसूरत गांवों को विरान करने की साजिश लंबे समय से हो रही है। लेकिन अब तो हद हो चली है। आप सोच रहे होंगे कि हम ऐसा क्यों कह रहे हैं।
दरअसल, राज्य बनने के 23 साल बाद भी पहाड़ी जिलों में स्वास्थ्य जैसी मूलभूत सुविधा के लिए एक बेहतर सरकारी अस्पताल उपलब्ध न करा पाना, इसका सबसे बड़ा प्रमाण है।
न्यूज चैनलों से विकास विकास चिल्लाकर और अखबारों में विकास के फुल पेज विज्ञापन छपवाकर उत्तराखंड के लोगों को आंकड़ों के जरिए गुमराह करने वाली सियासत और नौकरशाही अब इतनी निर्लज्ज हो चुकी है कि अब उसका पहाड़ के लोगों की जिंदगी से कोई वास्ता नहीं रह गया है। पहाड़ में लोग जीएं मरें, इनकी बला से…
यहां पिछले 23 साल में भाजपा और कांग्रेस जैसी राष्ट्रीय पार्टियों ने जमकर सत्ता सुख भोगा। भाजपा तो लगातार दो पारी से सत्ता में रहने का इतिहास बना चुकी है। लेकिन किसी भी सरकार ने राज्य के पहाड़ी जिलों और गांवों में रहने वाले मूल निवासियों के स्वास्थ्य की सच्ची चिंता नहीं की।
विकास विकास चिल्लाकर और अरबों सरकारी रुपए डुबाकर भी पहाड़ में जिदंगी देने वाले अस्पताल खोलने के बजाय रेफरल सेंटर जरूर बना दिया गए हैं।
पहाड़ के लोग तो यहां तक कहते हैं कि भ्रष्ट नेताओं और भ्रष्ट अफसरों ने पहाड़ी जिलों में अस्पताल और मेडिकल कॉलेज बनाने का खूब ढिंढोरा पीटा लेकिन सच्चाई यह है कि इन्हें बिल्डिंग और अस्पताल के दूसरे सामान की खरीदफरोख्त में कमीशन खाना होता है। जो अस्पताल का ढांचा बनते ही इनकी जेब में आ जाता है।
फिर चाहे अस्पताल में डॉक्टर हों न हों, कर्मचारी हों न हों, जांच मशीन हों न हों, पढ़ाने के लिए फेकल्टी हो न हो, इन नेताओं और अफसरों की बला से।
एक तरफ सरकार पहाड़ी जिलों में पीएचसी, सीएससी और मेडिकल कॉलेज खोलने में लगी हुई है लेकिन एक भी संस्थान में फैकल्टी और दूसरे संसाधन तक नहीं जुटाए जा सके हैं।
जब सरकार को पता है कि कुमाऊं के लोगों को जान बचाने के लिए भागकर आखिर में हल्द्वानी ही आना है तो फिर क्यों सरकार हल्द्वानी मेडिकल कॉलेज और सुशीला तिवारी अस्पताल को पूरी तरह से स्टाफ और अन्य सुविधाओं से लैस करती?
अगर कुमाऊं या गढ़वाल का एक भी सरकारी अस्पताल फैकल्टी, स्टाफ और अन्य सुविधाओं के साथ पूरी तरह से काम करेगा तो कम से कम पहाड़ के लोगों में ये आस तो रहेगी कि अब बरेली, दिल्ली या प्राइवेट अस्पतालों की लूट से बचकर हम अपने मरीज को बचा लेंगे।
यही वजह है कि राज्य बनने के 23 साल बाद भी पहाड़ के लोग जिंदगी बचाने के लिए हल्द्वानी, देहरादून, बरेली और दिल्ली की दौड़ लगाने को मजबूर हैं।
वो किस्मत वाले ही पहाड़ी होते हैं जो किसी तरह पैसा खर्च कर बच जाते हैं लेकिन अधिकतर पहाड़ के लोग सरकारों के नक्कारेपन और भ्रष्ट्राचार की वजह से अकाल ही मौत के मुंह में समा जाते हैं। यही सियासत और इसे चलाने वाले लोग फिर पहाड़ के खाली होते गांवों के लिए पलायन आयोग बनाते हैं।
अब इस मामले को ही देख लीजिए। बीते 8 फरवरी को प्रसव के बाद पौड़ी निवासी रेनू की रामनगर के सीएससी से हल्द्वानी के सुशीला तिवारी अस्पताल आते वक्त मौत हो गई थी।
24 साल की रेनू पौड़ी के मैठाणा ग्वीन मल्ला में पति अमित गौनियाल के साथ रहती थी। मामला सामने आने बाद तब पौड़ी के डीएम डॉ. आशीष चौहान ने जांच के आदेश दिए थे। डीएम ने एसडीएम थलीसैंण को मामले की जांच सौंपी। साथ ही 15 दिनों के भीतर जांच रिपोर्ट देने का आदेश दिया था।
जिन्हें नहीं पता उन्हें बताते चलें कि 24 वर्षीय रेनू को प्रसव पीड़ा होने पर परिजनों ने गांव के पास स्थित बीरोंखाल के सरकारी अस्पताल में भर्ती कराया गया था जहां रेनू ने एक बच्ची को जन्म भी दिया।
लेकिन रेनू की तबियत बिगड़ने पर चिकित्सकों ने उसे तत्काल रामनगर के सरकारी अस्पताल के लिए रेफर कर दिया।
नन्हीं परी की मां की जान बचाने के लिए बेबस परिजन आननफानन में उसे लेकर रामनगर के सरकारी अस्पताल पहुंचे लेकिन यहां भी डॉक्टरों ने हाथ खड़े कर दिए और रेनू को हल्द्वानी के सुशीला तिवारी अस्पताल रेफर करने का फरमान सुना दिया।
बेबस, लाचार और परेशान परिजन मजबूर थे उन्हें नवजात बच्ची को मां को बचाना था सो वो चल पड़े हल्द्वानी की ओर… लेकिन कुछ ही दूरी पर प्रसूता की मौत हो गई।
इस अनहोनी के बाद रेनू के पति अमित ने कहा था कि वह छह घंटे एंबुलेंस में पत्नी के साथ बैठे रहे और वह दर्द से कराहती रही। पहाड़ में अच्छा अस्पताल और डॉक्टर होते तो उनकी पत्नी असमय न मरती।
या यूं कहें उत्तराखंड की सियासत में बैठकर दिन रात सरकारी कामों की आड़ में पैसा बटोरने और काली कमाई से अपनी जायदाद बढ़ाने वाले भ्रष्ट नेताओं, मंत्रियों और अफसरों ने उसे जानबूझकर मरने को छोड़ दिया।
ये कहानी महज एक रेनू की नहीं है बल्कि उत्तराखंड की न जाने कितनी हीं बहन बेटियां अब तक सरकारी अस्पतालों के रेफर रेफर के इस खेल में अपनी जान गंवा चुकी हैं। लेकिन आज दिन तक सरकारों ने धरातल के असल हालातों को सुधारने की सुध नहीं ली।
जब भी किसी नेता या अधिकारी की जान पर बनी तो उसने दिल्ली, मुंबई या विदेश में अपना और अपने करीबियों का इलाज कराना बेहतर समझा लेकिन पहाड़ के लोगों को यूं ही मरने और प्राइवेट अस्पतालों से लूटने को छोड़ दिया गया।
इस मामले में नैनीताल जिले की सरकारी मशीनरी की संवेदना और कार्यशैली का अंदाजा लगाइए कि रेनू की मौत के 50 दिन बाद मामले की जांच के लिए नैनीताल डीएम वंदना सिंह ने जांच समिति का गठन किया है।
सिटी मजिस्ट्रेट एपी बाजपेयी की ओर से बयान जारी कर बताया गया कि उक्त घटना के संबंध में जिस किसी भी व्यक्ति को कुछ कहना हो अथवा कोई प्रमाण, साक्ष्य प्रस्तुत करने हो तो किसी भी कार्य दिवस में सिटी मजिस्ट्रेट कार्यालय हल्द्वानी में उपस्थित होकर साक्ष्य प्रस्तुत कर सकते हैं। यानी अब एसी दफ्तर में बैठकर ही जिम्मेदार अधिकारी पूरे मामले की जांच करेंगे।
सिटी मजिस्ट्रेट साहब, आपसे बस इतना ही पूछना है कि क्या साक्ष्य और प्रमाण देने के बाद आपका सिस्टम मौत के मुंह में समाई उस 24 साल प्रसूता की जिंदगी लौटा सकता है? अगर नहीं, तो फिर क्यों जांच के नाम पर कीमती सरकारी वक्त जाया किया जा रहा है।
अगर हां, तो ठीक है अगर संभव हुआ और मृतका रेनू के पति तक नैनीताल जिला प्रशासन का यह फरमान पहुंचा तो पीढ़ित परिवार आपके सामने पहाड़ से लेकर मैदान तक के हर सरकारी खोखले अस्पतालों की काहिली का चिट्ठा खोलेगा, जिसने उनकी दर्द से कराहती रेनू को देखते ही रेफर रेफर का राग अलापा।
लेकिन अगर किसी वजह से पहाड़ का ये पीड़ित परिवार ऐसा नहीं कर पाया तो क्या आपका सरकारी सिस्टम खुद अपनी तरफ से प्रसूता की मौत के जिम्मेदार उन तमाम लोगों को ढूंढेगा जो असल गुनहगार हैं??