जीवन बदलने वाली कहानी: दुआओं में बहुत बल होता है

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Inspiring Story: spiritual Story by BK krishna: एक विचार कैसे जीवन बदल सकता है, इसके कई उदाहरण अक्सर हमें समाज में देखने और सुनने को मिलते हैं। यकीनन वो एक विचार ही होता है जो हमारे वर्तमान और भविष्य को बदलने की ताकत रखता है।

आज हम आपसे एक ऐसी ही जीवन बदलने वाली ऐसी ही कहानी साझा कर रहे हैं जिसे हमने प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्वविद्यालय से संबद्ध ज्ञानामृत पत्रिका से साभार प्राप्त किया है। इसके लेखक ब्रह्माकुमार कृष्ण, मनमोहिनीवन ऑडिटोरियम, शांतिवन, माउंट आबू, राजस्थान हैं।

मेरा जन्म उड़ीसा के गंजाम जिले के गांव धवलपुर में सन 1978 में हुआ। परिवार में हम चार भाई और एक बहन है। माता-पिता भक्ति करते थे इसलिये घर में भक्ति का माहौल था, मैं शिव की बहुत भक्ति करता था।

रोज़ उनके मंदिर में जाता था और घर के पास एक श्री कृष्ण का मंदिर था, उसमें भी जाता था, हरे रामा, हरे कृष्णा का जाप, कार्तिक महीने में रात भर करता था और बाकी महीनों में शाम को 6 से 8 बजे तक यह जाप करता था।

शरीर दिखाई नहीं दिया केवल एक ज्योर्तिबिंदु आत्मा ही दिखती रही जाप करने से मुझे शांति की अनुभूति होती थी।

नाम जपने के अलावा मैं और भी कई सत्संगों में जाता था ताकि मुझे भगवान की प्राप्ति हो जैसे साईराम का सत्संग, संत निराकार का सत्संग, पूनाराम का सत्संग आदि-आदि। आसपास कहीं भी सत्संग होते थे तो मैं पहुंच जाता था।

हमारे गांव से 4 किलोमीटर की दूरी पर शेरगढ़ में एक जगन्नाथ का मंदिर है, एक बार वहां हम रथयात्रा देखने के लिए गए, वहां ब्रह्माकुमारीज की प्रदर्शनी लगी हुई थी।

मेरे साथ मेरा एक मित्र भी था, हम दोनों इकट्ठे भक्ति भी करते थे, मंदिर में भी जाते थे, हम दोनों ने प्रदर्शनी देखी। प्रदर्शनी के पहले चित्र में बताया गया है कि शरीर गाड़ी है और जैसे ड्राइवर गाड़ी को चलाता है, ऐसे आत्मा भी शरीर रूपी गाड़ी को चलाती है। यह बात हमको बहुत अच्छी लगी। प्रदर्शनी के स्थान के ठीक

सामने ही गीता पाठशाला का स्थान था, वहां के निमित्त भाई ने हमको कहा कि आप कल से इस गीता पाठशाला में आना। अगले दिन गीता पाठशाला में गए, वहां निमित्त बहन के सामने बैठे, वह जो कुछ भी बताती थी, उसको हम दिल से स्वीकार करते थे और हमको बहुत ज्यादा सुकून मिलता था। हमारा कोर्स तो चार दिन में ही पूरा हो गया, हमने कोई भी प्रश्न नहीं पूछा।

पांचवें दिन बहन ने कहा कि आप मेरी भृकुटि में देखना और वह हम दोनों को दृष्टि देने लगी। जब उनकी भृकुटि में देखा तो मुझे शरीर दिखाई नहीं दिया केवल एक ज्योर्तिबिंदु आत्मा ही दिखती रही। कुछ समय के बाद बहन उठ करके चली गई, सामने बापदादा (ब्रह्माबाबा और उनके तन में शिवबाबा) का चित्र था।

बहन ने कहा कि अब आप थोड़ी देर बाबा के सामने बैठो। जब मैंने बाबा को देखा तो मुझे इतना आकर्षण हुआ कि जैसे मैं ब्रह्माबाबा को बरसों से जानता हूं और बाबा भी मुझे बरसों से जानते हैं।

इसके दो दिन बाद गुरुवार था, हमें सुबह की क्लास में मुरली सुनने के लिए बुलाया गया। बाबा की मुरली में आया कि यह ड्रामा हूबहू रिपीट होता है और जो कल्प पहले आए थे, वही अब फिर आएंगे, यह बात सुनकर के मुझे बहुत ज्यादा खुशी हुई कि मैं कल्प पहले भी आया था इसलिए अब फिर आ गया हूं। पहले दिन ही मुझे ड्रामा की इस बात पर पूरा निश्चय हो गया।

व्यापार बहुत अच्छा चला, बहुत कमाई हुई

मैंने बी.ए. तक की पढ़ाई पढ़ी थी और उसके बाद मुझे यूनिवर्सिटी में पोस्ट ग्रेजुएशन के लिए दाखिला लेना था लेकिन इस ज्ञान को सीखने के बाद मन में आया कि यूनिवर्सिटी तो मुझे मिल गई है क्योंकि बोर्ड पर लिखा था ईश्वरीय विश्व विद्यालय इसलिए अब किसी और यूनिवर्सिटी में जाने की इच्छा नहीं है।

बड़े भाई ने कहा कि आप यूनिवर्सिटी में दाखिला लो, मैंने मना कर दिया, तब उन्होंने कहा, फिर क्या करोगे, अगर पढ़ना नहीं है तो खेती-बाड़ी का काम करो। उन्होंने मुझे ट्रैक्टर लाकर दिया और खेती-बाड़ी की सारी जिम्मेदारी सौंप दी।

मैं ट्रैक्टर से अपनी खेती तो जोतता ही था लेकिन दूसरे लोगों की खेती भी जोतता था, इस तरह से मेरा यह व्यापार बहुत अच्छा चला, बहुत कमाई हुई लेकिन जब भी मैं सेंटर जाता था तो घर के लोग नाराज होते थे कि तू बिजनेस को छोड़कर, ट्रैक्टर को छोड़कर वहां क्यों जाता है।

मुझे विश्वास था कि वहां जाने से ही मेरा काम अच्छा चल रहा है लेकिन घरवालों को यह बात समझ में नहीं आती थी और मुझे रोकने की कोशिश करते थे। मेरे मित्र, जान-पहचान वाले लोग सब मुझे आश्रम जाने से रोकने लगे। मैं बिजनेस के बहाने ही क्लास में जाता था।

घरवाले सोचते थे कि शायद पैसे की उगाही करने गया हुआ है। जिस दिन मैं क्लास में नहीं जाता था, उस दिन ना तो मुझे कोई पैसा मिलता था, मेरी गाड़ी खराब हो जाती थी, कुछ ना कुछ मुझे नुकसान जरूर होता था।

गांव के लोगों की दुआएं ली

मैंने निश्चय किया कि मुझे अपने घरवालों को संतुष्ट रखना है, भोजन के बारे में भी प्रॉब्लम आई परन्तु मुझे उनके अनुसार चलना पड़ा। मैं जो भी धन कमाता था, सारा का सारा बड़े भाई को सौंप देता था, अपने लिए एक पैसा भी नहीं रखता था इसलिए कि वह खुश रहे, घर में शांति रहे और कोई आस-पड़ोस वाला यह न बोले कि यह ब्रह्माकुमारी में जाने लगा तो घर में झगड़ा होने लगा है।

बिजनेस में मैं कई गरीबों की तो फ्री सेवा कर देता था जैसे किसी को पत्थर, किसी को और कोई सामान पहुंचा देता था, वे पैसे नहीं दे पाते थे तो मैं जबर्दस्ती पैसे लेने की कोशिश नहीं करता था, उनकी दुआएं लेता था।

बिजनेस के माध्यम से मैंने सब गांव के लोगों की दुआएं लें। ऐसे तो कई लोगों के पास ट्रैक्टर था लेकिन अधिकतम लोग मेरे ट्रैक्टर से सेवा लेना चाहते थे, कहते थे, इसका व्यवहार बहुत अच्छा है। धीरे-धीरे बिजनेस इतना बढ़ा कि ट्रैक्टर एक से बढ़कर दो हो गए।

मधुबन का वातावरण मेरे मन में बस गया

सन् 2005 में मैं पहली बार ग्राम विकास के कार्यक्रम में मधुबन में आया। बड़ी दादी, कॉन्फ्रेंस हॉल के बरामदे में टोली (प्रसाद) दे रही थी, टोली बांटने का काम पूरा होने वाला था, तब मैं वहां दौड़कर के गया और दादी ने मेरे हाथ पर टोली रखी, दृष्टि दी, दृष्टि द्वारा मुझे शांति, अलौकिकता, प्रेम, पवित्रता की बहुत अच्छी अनुभूति हुई।

मधुबन का वातावरण मेरे मन में बस गया, मैं वापस जाना ही नहीं चाहता था इसलिए स्टेशन तक रोते-रोते ही गया। सन् 2009 में एक बार बारिश का मौसम था और बिजनेस थोड़ा कम था, मैं थोड़ा सा रिलैक्स था, तो सोचा कि मधुबन जाकर के थोड़ा सा रिफ्रेश होकर आता हूं क्योंकि मुझे हर साल मधुबन जाने की छुट्टी नहीं मिलती थी।

निमित्त बहन जी की चिट्ठी लेकर मैं मधुबन आ गया, रास्ते में ट्रेन से ही घर में फोन कर दिया कि मैं दो-चार दिन में वापस आ जाऊंगा। मधुबन में आने के बाद वरिष्ठ भ्राता भोपाल जी ने मुझे नदी पर सेवा करने के लिए भेज दिया।

नदी पर मैंने ट्रैक्टर चलाने की और गौशाला में सेवा की, इस में मुझे बहुत ही आनंद आया। नदी पर जो भाई थे वे बहुत संतुष्ट हुए कि यह तो बहुत अच्छा सेवाधारी है। कुछ समय के बाद मुझे कहा गया कि आपको रहते-रहते 6 महीने हो गए, अब आप घर जाओ लेकिन मैं तो घर जाना ही नहीं चाहता था।

शांतिवन में मेरा बहुत मन लग गया था। मैं बाबा के कमरे में गया बाबा के आगे खूब आंसू बहाए कि बाबा, इस में सब कुछ करके देख लिया, धन भी कमा और दुनिया लिया, परिवार में भी रह लिया लेकिन अब मेरा मन यहां रम गया है, अब मैं यहां से जाना नहीं चाहता हूं। बाबा ने भी मेरे दिल की बात सुनी और नदी के बाद मुझे मनमोहिनीवन में दूसरी सेवा दे दी गई।

बुआ के घर गीता पाठशाला खुली

मैं प्रतिदिन अमृतवेले सारे घरवालों को सूक्ष्म रूप में अपने सामने बिठाकर के शुभकामनाएं देता था। उनको अंदर ही अंदर सूक्ष्म रूप से ईश्वरीय कार्य के बारे में अवगत कराता था।

कुछ दिनों तक इस प्रकार वायब्रेशन देने के बाद मैंने अपने लौकिक छोटे भाई को फोन किया कि तुम शेरगढ़ की निमित्त बहन को अपने गांव में बुलाओ और एक प्रोग्राम करो, उसका सारा प्रबंध आप करो।

मेरी लौकिक बुआ का घर, मेरे पिताजी के घर से थोड़ी दूरी पर था, उसके घर के सामने सात दिन का कोर्स चला, बुआ ज्ञान में चलने लगी और उसी के घर के एक कमरे में आगे का प्रोग्राम चला।

तब से लेकर आज तक वहां गीता पाठशाला चल रही है और मेरा छोटा भाई, जिसकी शादी की चर्चा मेरे आने के बाद होने लगी थी, वह भी ज्ञान में चल पड़ा और अब कुमार जीवन में बाबा की बहुत सेवाएं करता है।

लौकिक परिवार को महसूस हुआ कि रास्ता बहुत अच्छा है

सन् 2014 में पिताजी ने देहत्याग किया, तब मैं 5 साल के बाद अपने लौकिक घर गया। पहले गांव वाले सोचते थे कि यह संन्यासी बन गया है, गांव में नहीं आएगा लेकिन जब मैं गांव में और घर में गया तो उनको लगा कि यह संन्यास मार्ग नहीं है, यह कोई और मार्ग है। पिताजी के तेरहवें दिन मैंने सभी निमित्त

ब्रह्माकुमारी बहनों को घर में बुलाया, उन्होंने ज्ञान सुनाया तो परिवार को अच्छा लगा, बहनों को लौकिक भाई और परिवार वालों ने पूरा सम्मान, सहयोग दिया। सन् 2015 में मैंने सारे लौकिक परिवार को मधुबन में बुलाया, मेरे प्रति उनके मन की भावना चेंज हो गई, सबको महसूस हुआ कि रास्ता बहुत अच्छा है। इसके बाद लौकिक बहन के ससुराल में भी बाबा ने गीता पाठशाला खोलने के निमित्त बनाया, बहन और उसका युगल दोनों ज्ञान में चल रहे हैं।

जितनी दुआएं, उतने अवरोध खत्म

आज तक ब्राह्मण परिवार में किसी के साथ मेरी कोई खिट-पिट नहीं हुई। मैंने लौकिक स्थान की ब्रह्माकुमारी बहनों की भी बहुत दुआएं लीं और मधुबन में आने के बाद मुझे जो भी सेवा मिली, उसमें कोई भी शारीरिक-मानसिक तकलीफ नहीं हुई, हर सेवा में उमंग-उत्साह रहा इसलिए पूरे मधुबन दैवी परिवार की बहुत दुआएं ली हैं इसलिए मुझे हर पल सफलता मिलती चली गई।

दुआओं में बहुत बल होता है। जितनी हम दुआएं लेते हैं उतने हम अपने आप आगे बढ़ते चले जाते हैं, रास्ते के अवरोध खत्म हो जाते हैं। मैं जब उड़ीसा से मधुबन में आ गया तो बहुत माताएं और बहुत से वे गरीब लोग, जिनके परिवार मेरे बिजनेस के आधार पर चलते थे, बहुत रोए और अभी भी मुझे बहुत याद करते हैं। मैंने उन लोगों की भी बहुत दुआएं लीं। मैं सबका बहुत-बहुत शुक्रगुजार हूं।

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संजय पाठक

संपादक - प्रेस 15 न्यूज | अन्याय के विरुद्ध, सच के संग हूं... हां मैं एक पत्रकार हूं

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