जय संतोषी मां से करवाचौथ तक – जनसंचार माध्यमों का बदलता स्वरूप और जनआस्था का विस्तार

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1975 का वर्ष भारतीय सिनेमा के इतिहास में एक अनूठा अध्याय लेकर आया। विजय शर्मा के निर्देशन में बनी फ़िल्म “जय संतोषी माँ” ने न केवल धार्मिक फ़िल्मों की परंपरा को नया आयाम दिया, बल्कि जनसंचार माध्यमों की शक्ति को भी सजीव रूप में सामने रखा।

यह फिल्म उस दौर में बनी थी जब टेलीविज़न धीरे-धीरे घरों में पहुंचने लगा था। परंतु जैसे ही इस फिल्म ने पर्दे पर और फिर टेलीविजन स्क्रीन पर प्रवेश किया। श्रद्धा, भक्ति और विश्वास का एक नया अध्याय शुरू हो गया।

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फिल्म के गीतों और भजनों ने मानो हर घर में देवी संतोषी की उपस्थिति को साकार कर दिया। “जय संतोषी माँ, जय संतोषी माँ”, “मैं तो आरती उतारूँ रे संतोषी माता की”, “यहां वहां, जहां तहां, मत पूछो कहाँ कहाँ हैँ संतोषी माँ, अपनी संतोषी माँ ” जैसे भजन लोगों की जुबान पर चढ़ गए। मंदिरों में, घरों में, यहाँ तक कि बच्चों के होठों पर भी ये भजन गूंजने लगे।

फिल्म केवल धार्मिक नहीं थी। यह एक साधारण स्त्री की असाधारण श्रद्धा की कथा थी। नायिका अपने जीवन के कष्टों के बीच भी भक्ति और सच्चाई से डिगती नहीं, और अंततः देवी संतोषी उसकी आस्था की रक्षा करती हैं।

इस कथा ने असंख्य महिलाओं के हृदय को छू लिया। परिणामस्वरूप, “संतोषी माता का व्रत” देशभर में लोकप्रिय हो गया। शुक्रवार को व्रत रखना, खट्टा न खाना, और व्रत के समापन पर आठ बालकों को भोजन कराना, यह सब घर-घर की परंपरा बन गई।

1980 और 90 के दशक में जब टेलीविज़न पूरी तरह घर-घर में पहुँच गया, तो “जय संतोषी माँ” बार-बार प्रसारित होती रही। और हर प्रसारण के साथ, लोगों की आस्था और गहरी होती गई। यही वह दौर था जब जनसंचार माध्यमों ने यह सिद्ध कर दिया कि उनका प्रभाव केवल मनोरंजन तक सीमित नहीं, बल्कि वह जनमानस की भावनाओं और जीवनशैली को भी बदल सकता है।

इसी तरह, आज के डिजिटल युग में सोशल मीडिया ने वही भूमिका निभाई है जो उस समय टेलीविज़न ने निभाई थी। जिस प्रकार “जय संतोषी माँ” ने संतोषी माता के व्रत को पूरे देश में फैलाया था, उसी प्रकार आज सोशल मीडिया ने करवाचौथ को राष्ट्रीय आस्था का पर्व बना दिया है।

करवाचौथ, जो कभी उत्तर भारत के कुछ हिस्सों तक सीमित था, अब देशभर में मनाया जाने लगा है। इंस्टाग्राम पर मेहंदी के डिज़ाइन, यूट्यूब पर करवाचौथ पूजा विधि, और फेसबुक पर सजधज की तस्वीरें — इन सबने इसे एक सांस्कृतिक उत्सव बना दिया है। अब यह केवल पति की दीर्घायु का व्रत नहीं रहा, बल्कि प्रेम, समर्पण और पारिवारिक एकता का प्रतीक बन गया है।

विजय शर्मा की “जय संतोषी माँ” से लेकर आज के डिजिटल युग के करवाचौथ तक, जनसंचार माध्यमों ने यह दिखा दिया है कि उनकी शक्ति समय के साथ बदलती जरूर है, पर उसका असर सदैव गहरा रहता है।

जहां एक ओर फ़िल्म के गीतों ने लोगों को भक्ति से जोड़ा, वहीं आज सोशल मीडिया के “रिल्स और पोस्ट” ने परंपरा को नए रूप में जीवित रखा है।

अंततः, यह कहा जा सकता है कि माध्यम बदलते हैं, पर भाव वही रहते हैं। कभी ‘जय संतोषी माँ’ की आरती से, तो कभी करवाचौथ की थाली से, आस्था की ज्योति हर युग में जलती रहती है।

प्रो. (डॉ.) राकेश चंद्र रयाल (मनरागी)।

यह लेख प्रो. (डॉ.) राकेश चंद्र रयाल (मनरागी) द्वारा लिखा गया है जो उत्तराखंड मुक्त विश्वविद्यालय में जनसंपर्क अधिकारी और पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग के विभागाध्यक्ष के रूप में सेवाएं दे रहे हैं।

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संजय पाठक

संपादक - प्रेस 15 न्यूज | अन्याय के विरुद्ध, सच के संग हूं... हां मैं एक पत्रकार हूं

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