हल्द्वानी, प्रेस 15 न्यूज। ये राजनीति भी गजब का खेल है साहब, ये जो न कराए वो कम है। लोकसभा चुनाव सिर पर है। कोई मोई सीएफएल की रोशनी में जगमगा रहा है तो कहीं दीपक का उजाला भी प्रकाश तक नहीं पहुंच पा रहा है।
दरअसल, टिकट का तेल खत्म क्या हुआ ‘दीपक’ की लौ ऐसी फड़फड़ाई कि एक पल के लिए ऐसा लगा मानो मकान मालिक के घर में अंधेरा ही छा जाएगा।
‘दीपक’ की लौ बुझी नहीं कि मकान मालिक पूरा का पूरा पृथ्वी लोक से गायब होकर पाताल लोक में ही शिफ्ट हो जाएगा।
इन सबके बीच दीपक को अपने बुझने का गम तो था लेकिन उससे भी ज्यादा खुशी इस बात की थी कि जिन लोगों ने उसके सालों साल के उजाले की कद्र नहीं की, अब वो उन्हें अंधेरे में ही भटकने को छोड़ जाएगा।
जब वो अंधेरे में भटकेंगे और दर दर की ठोकरें खाकर करीब करीब घायल हो जाएंगे तब उन्हें पता चलेगा कि आखिर ये ‘दीपक’ क्या चीज था।
चीज से बता दें ये फोटो खींचते समय बोले जाने वाला संबोधन चीज नहीं है बल्कि वो चीज है जिसका स्वाद और गुण बड़े बड़े खाटी दिग्गज नहीं ढूंढ पाए।
ज्यादा पीछे नहीं जाते हैं एक महीने पहले की ही बात है। ‘दीपक’ पूरी तरह से तेल से लबालब था। रोशनी भी ऐसी कि पूरे उत्तराखंड में उजाला था। अब आप कहेंगे काहे फेंकते हो भाई…
ऐसा भी भला होता है कि नैनीताल में ‘दीपक’ जले और उसका उजाला पूरे उत्तराखंड में हो। ये तो ऐसा ही हो गया कि धन दा देहरादून में बारिश वाला एप ऑन करें और चेरापूंजी में बारिश रुक जाए। या जमरानी बांध फाइलों में 5- 5 साल की दूरी पर बनाते रहें और हल्द्वानी और उधमसिंह नगर के लोगों के हलक खुद ब खुद तर हो जाएं।
तो अब सच्चाई भी जान लीजिए दरअसल यह कोई मामूली ‘दीपक’ नहीं है। यह कलाकार ‘दीपक’ है, एक दम डिजाइनर ‘दीपक’ जो ऐसी पटकथा लिखता है कि मुंबई फिल्म इंडस्ट्री के अच्छे- अच्छे स्क्रिप्ट राइटर गश खाकर गिर जाएं।
वो दिन अच्छे से याद है ना आपको करीब एक महीने पहले जब ‘दीपक’ के टिकट का तेल एक दम सूखने वाला ही था। किसी को इसकी खबर नहीं थी सिवाय दीपक के…
फिर क्या था दीपक ने चला एक दांव, दांव भी ऐसा वैसा नहीं सीधे घर छोड़ने का…यानी सालों से जिस घर में दीपक जल रहा था अब इस घर को दीपक अंधेरे में ही छोड़ कर जाने वाला था। हालाकि लोग तो यहां तक कह रहे थे कि उस घर में तो अंधेरा 2014 से ही शुरू हो गया था। जिस कमरे में दीपक था बस वहीं उसका उजाला बिखरा रहता था।
दरअसल ‘दीपक’ के पास उजाला बिखेरने की एक अद्भुत कला थी। दीपक के पास कुछ खास लालटेनों का सेट था। दरअसल, कुछ बुझे हुए लालटेन शहर भर में घूम फिरने के बाद ‘दीपक’ के पास चाय पानी बोले तो चमक की आस में आते थे।
लालटेनों की जरूरत तेल पानी का ख्याल दीपक बखूबी रखता और बदले में ये सारी लालटेन मिलकर ‘दीपक’ को उसका उजाला पूरे उत्तराखंड में बिखेरने का भभका देते।
बहरहाल दीपक को लगता था कि उसका उजाला उत्तराखंड ही नहीं दिल्ली वाली मौसी और उनके बेटे के घर तक जाता है। यही वजह है कि पिछले महीने जैसे ही ‘दीपक’ के टिकट का तेल खत्म हुआ तो ‘दीपक’ ने सारी बुझी हुई लालटेनों को आगे कर दिया। जिसका थोड़ा बहुत असर भी हुआ।
आननफानन में वो लोग भी दीपक में तेल भरने का ड्रामा करने आए जो हर रोज पीठ पीछे दीपक का तेल सुखाने में पहले नंबर पर रहते हैं। हालाकि उनके आते ही दीपक ने भी खूब भाव खाए क्योंकि इस दौरान भी बुझी हुई लालटेन दीपक के चारों तरफ घेरा बनाए खड़ी थीं।
दिल्ली की मौसी और मौसी के बेटे तक तो नहीं लेकिन उत्तराखंड के पहाड़ी जिलों से होते हुए लालटेनों का फैलाया कृत्रिम उजाला आखिरकार दिल्ली में धोती वाले बूबू के दरबार तक जरूर पहुंचा।
फिर क्या था लालटेनों ने दीपक का खूब महिमा वाला उजाला किया और ये जताया कि अगर नैनीताल के मकान मालिक को अपने घर को चमकाना है और मोई सीएफएल को टक्कर देनी है तो ‘दीपक’ में तत्काल टिकट का तेल भरना ही होगा।
लेकिन बुबू तो बुबु थे उन्हें कहां लोकल लालटेनों पर भरोसा था और न ही दीपक पर…उन्होंने दिल्ली वाली मौसी के बेटे की बात को तवज्जो दी और उसने जहां कहा वहां टिकट का प्रकाश बिखेर दिया।
इतनी सारी फालतू मतलब पालतू लालटेनों के होते हुए ‘दीपक’ के बजाय प्रकाश कहीं और हो जाए ये सरासर अन्याय है… कहकर ‘दीपक’ ने अचानक खुद को ही गायब कर दिया। गायब मतलब ‘दीपक’ दुवाओं में याद रखना गीत गुनगुनाकर अंतर्ध्यान हो गया।
अभी बंद कमरे में दीपक बैठा ही था कि सामने मकान मालिक के साथ अपनी सालों पुरानी तस्वीर को देखकर एक बार फिर दीपक में बुद्धिमत्ता की लौ जल उठी।
फिर क्या था पालतू मतलब फालतू लालटेनों की रोशनी में एक बार दीपक ने खुद के पैसों से ही खुद में तेल भरवाने का भभका दे दिया। हालाकि इस बात पर किसी ने भी भरोसा नहीं किया। अब इन सारी उठापटक के बीच दीपक को अपने बचेखुचे तेल के भी सूखने का डर था।
इस बार दीपक के समझ में आ गया था कि खुद के पैसों से तेल भराकर चमकना हर बार कारगर साबित नहीं होता। घर का मालिक ही तेल भराए तो ज्यादा ठीक रहता है।
जिसके बाद दीपक ने खुद के पैसों से तेल भराकर जगमगाने की ख्वाहिश पर विराम लगा दिया और फिर से उस घर के कोने में बैठ गया जहां से भविष्य में तेल मिलने की उम्मीद है। वो तेल जो दीपक को लंबे समय तक रोशन कर सकेगा।
वैसे भी दीपक को ईडी, सीबीआई जैसे तूफानों को देखकर कोई डर या कोई मुनाफे की फीलिंग बहरहाल तो नजर नहीं आती। अगर ऐसा होता तो कबके पड़ोसी मह+ एश की तरह मकान मालिक बदल लेता।
लेकिन इस टिकट के तेल ने एक बात तो साफ कर दी कि कभी कभी बुझे हुए लालटेनों में हजार दो हजार का तेल डालना भी फायदे का सौदा होता है। वरना दीपक पूरे जोश में मकान मालिक को घर छोड़ने की भभकी कैसे दे पाता।
ना ना ना…लौट के बुद्धू घर को आए ये कहावत यहां फिट नहीं बैठती क्योंकि ये दीपक है साहब भली भांति जानता है कि किस घर में रहकर उजाला बिखेरा जा सकता है और किस घर में जाकर गुमनामी के समंदर में डूबा जाएगा।
आखिर में ये बताना तो भूल ही गया कि दो बार फड़फड़ाकर बुझने के बाद दीपक ने इस बार फाइनली तय किया है कि अपना सारा का सारा उजाला सिर्फ और सिर्फ दिल्ली वाले मौसी के बेटे के घर को रोशन करने को देंगें। मौसेरे भाई के किसी दोस्त या जानने वाले को उनका प्रकाश नहीं मिलेगा। ऐसे में तय है कि दीपक की एक भी किरन प्रकाश तक नहीं पहुंच पाएगी।
अब ये बात तो वर्षों पुराने मकान मालिक भी जानते ही हैं कि वर्तमान में दीपक में उजाला करने लायक तेल बचा भी है या नहीं।
लेकिन अंदेशा इस बात का है कि कहीं अगले 10- 15 दिनों अगर दिल्ली वाली मौसी के बेटे ने अपने किसी जिगरी के लिए थोड़ा सा प्रकाश ‘दीपक’ से मांग लिया तो ? क्या एक बार फिर ‘दीपक’ की लौ पलटी मारेगी??? खामखा दीपक की लौ से जनता का बचाखुचा भरोसा भी उठ जाएगा। अथ श्री दीपक कथा….